दर्शको नमस्कार,
मैं रजनीश शर्मा डंके की चोट पर कुछ कहने के लिए हाजिर हुआ हूं। उम्मीद है कि डंके की चोट पर की गई इन बेबाक टिप्पणियों की गूंज सरकार तक भी पहुंचेगी। मुद्दा कर्मचारियों से जुड़ा है जिनकी करोड़ों की देनदारियां अभी हिमाचल सरकार ने देनी है। हिमाचल में कर्मचारी, पेंशनर और इनके परिवार के सदस्य मिलकर तय करते हैं कि सरकार को रिपीट करना है या फिर पलट देना है। करीब 25 लाख वोट कर्मचारी, पेंशनरों और इनके परिवारों के सदस्यों के हिमाचल की राजनीति को सीधा प्रभावित करते हैं। हिमाचल जैसे छोटे राज्य में यह प्रेशर ग्रुप विशेष अहमियत भी रखता है।
आइए बात फिर मुख्य मुद्दे की ही करते हैं। कर्मचारियों के हितों की रक्षा करने के लिए गठित प्रशासनिक ट्रिब्यूनल स्वयं अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता नजर आता है। इसकी वजह यह है कि सरकारों की मेहरबानियां कभी इसे बंद कर देती हैं तो कभी खोल देती है।
हिमाचल की कांग्रेस सरकार ने प्रशासनिक ट्रिब्यूनल को फिर से बहाल करने का निर्णय लिया है क्योंकि 2022 के विधानसभा चुनावों में ऐसा आश्वासन प्रदेश के कर्मचारियों को दिया गया था। प्रदेश में प्रशासनिक ट्रिब्यूनल की स्थापना 1986 में की गयी थी। 1986 के बाद इसे दो बार बन्द किया गया।
संयोगवश बन्द करने का फैसला दोनों बार भाजपा शासन के दौरान ही लिया गया। जुलाई 2019 में पूर्व जयराम ठाकुर की सरकार के दौरान कर्मचारियों के ही आग्रह पर लिया गया था। आज इसे दोबारा खोलने का फैसला क्या इसलिये लिया जा रहा है कि बन्द करने का फैसला पूर्व सरकार ने लिया था।
2022 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने प्रदेश की जनता को दस गारंटीयां भी दी थी। लाखों युवाओं को रोजगार देने का वायदा भी किया गया था। लेकिन जब इन गारंटीयों को पूरा करने की बात आयी तब प्रदेश के सामने राज्य की कठिन वित्तीय स्थिति आड़े आ गई।
इस कठिन वित्तिय स्थिति के नाम पर ही सरकार ने अब तक 12000 करोड़ का कर्ज ले लिया है। इस परिदृश्य में प्रशासनिक ट्रिब्यूनल दोबारा खोलकर प्रदेश पर सौ करोड़ का बोझ डालना कितना हितकारी होगा यह आम सवाल बन गया है।
ट्रिब्यूनल से शीघ्र हाईकोर्ट से मिलता है न्याय
जब जुलाई 2019 में ट्रिब्यूनल को बन्द कर दिया गया था और कर्मचारी मामले प्रदेश उच्च न्यायालय को ट्रांसफर कर दिये गये थे तब इन के आंकड़ों पर ही उच्च न्यायालय से न्यायाधीशों की संख्या में बढ़ौतरी की गयी थी। मुख्य न्यायालय में जजों की संख्या 13 से 17 कर दी गयी थी। अब फिर इस संख्या को 17 से 21 करने का प्रस्ताव विचाराधीन है। अब जब ट्रिब्यूनल फिर से खोल दिया जायेगा तो कर्मचारियों के मामले वहां से ट्रांसफर होकर ट्रिब्यूनल में वापस आएंगे और इसका असर उच्च न्यायालय पर पड़ेगा और उसके विस्तार रास्ता रुक जायेगा। दूसरी ओर ट्रिब्यूनल के लिये एक अलग भवन की व्यवस्था करनी पड़ेगी। क्योंकि पुराना भवन अब उच्च न्यायालय के पास नहीं है। ऐसे में यह अहम सवाल हो जाता है कि क्या कर्ज लेकर ऐसी व्यवस्था करना आवश्यक है।
इस समय कर्मचारियों के कई मामले लंबित पड़े हुये हैं। 2016 में जो वेतनमानों में संशोधन हुआ था उसके मुताबिक सरकार अभी तक सरकारी कर्मचारियों को भुगतान नहीं कर पायी हौ सेवानिवृत कर्मचारी इन लाभों के लिये उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं। दर्जनों मामलों पर उच्च न्यायालय कर्मचारियों को यह भुगतान 6% ब्याज सहित करने के आदेश कर चुका है लेकिन सरकार इन फैसलों पर अमल नहीं कर पा रही है।
ऐसी करोडों की देनदारियां सरकार के नाम खड़ी हो गयी है और कर्मचारियों में रोष फैलता जा रहा है। इस वस्तुस्थिति में ट्रिब्यूनल की बहाली कुछ सेवानिवृत्ति बड़े अधिकारियों के पुनः रोजगार का साधन बनने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पायेगा। बल्कि कर्मचारियों को जो न्याय आज तक उच्च न्यायालय से मिल रहा है उसके मिलने का रास्ता भी लम्बा हो जायेगा।
डंके की चोट पर
यह ट्रिब्यूनल पुनः खोलने से पहले सरकार को यह आंकड़ा जारी करना चाहिये की जब यह संस्थान खोला गया था तब कितने मामले इसके पास आये थे। प्रतिवर्ष औसतन कितने मामलों का फैसला हुआ है। उच्च न्यायालय में कर्मचारियों के कितने मामले प्रतिवर्ष निपटाये गये? आज इसे खोलने की आवश्यकता क्यों आयी है? इस पर प्रतिवर्ष कितना खर्च होगा और उसका साधन क्या होगा। सरकार जब तक तार्किक तरीके से अपना पक्ष जनता में नहीं रखेगी तब तक इस प्रयास को कर्ज लेकर घी पीने का जुगाड़ ही माना जायेगा।