
जय हिंद….. तो आज लाहौर पर होता भारत का कब्जा, जानें 1965 के युद्ध की वो कहानी
स्पेशल रिपोर्ट : रजनीश शर्मा
पोल खोल न्यूज़ डेस्क ….
23 सितंबर का दिन भारत के लिए हमेशा याद रखा जाने वाला दिन है. क्योंकि आज के दिन कुछ ऐसा होते-होते रह गया, जिससे वैश्विक स्तर पर भारत और पाकिस्तान की भौगोलिक संरचना बदल जाती। वर्ष 1965 में दोनों देशों के बीच भीषण युद्ध हुआ और संयुक्त राष्ट्र की पहल पर 23 सितंबर के दिन ही युद्ध विराम हुआ। यह पहला ऐसा युद्ध था, जब दोनों देशों को बीच हर जगह मोर्चा खुल गया था। वैसे तो यह लड़ाई मुख्य रूप से पैदल सेना और टैंक डिविजन के बीच लड़ी गई। लेकिन, इसमें नौसेना ने भी अपना योगदान दिया और यह पहला मौका था जब दोनों देशों की वायु सेना जंग के मैदान में उतरी थी।
जब भारत ने कर दिया लाहौर पर हमला
भारत और पाकिस्तान के बीच साल 1965 में हुए युद्ध को कश्मीर के दूसरे युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। यह युद्ध 5 अगस्त 1965 को शुरू हुआ था और 23 सितंबर 1965 को खत्म हो गया। इस युद्ध में दोनों देशों के हजारों लोग मारे गए थे। 6 सितंबर 1965 को भारतीय सेना ने पाकिस्तान के दूसरे सबसे बड़े शहर लाहौर पर हमला किया था। इस हमले ने युद्ध की दिशा बदल दी और दुनिया का ध्यान इस पर आ गया।
आज भारत के पास होता लाहौर
संयुक्त राष्ट्र ने युद्ध विराम की घोषणा की थी और इसके बाद ताशकंद में दोनों देशों के बीच समझौता हुआ था। इस समझौते में दोनों देशों ने क्षेत्रीय दावों को छोड़ दिया और विवादित इलाके से अपनी सेनाएं वापस ले ली। इस युद्ध में भारत को पाकिस्तान की जमीन लौटानी पड़ी। भारतीय फौज पाकिस्तान के लाहौर के करीब पहुंच चुकी थी। तब जाकर 23 सितंबर 1965 को युद्ध विराम की घोषणा की गई। इस युद्ध में भारत की जीत ने दुनिया में भारत का कद बढ़ाया और उसे नई पहचान दिलाई। अगर दोनों देशों के बीच 23 सितंबर को युद्ध विराम नहीं हुआ रहता और ताशकंद समझौते की शर्तें नहीं मानी गई होतीं, तो आज भारत के पास लाहौर होता।
कैसे शुरू हुआ 1965 का युद्ध
20 मार्च 1965 में पाकिस्तान ने जानबूझ कर कच्छ के रण में झड़पें शुरू कर दी। शुरू में इनमें केवल सीमा सुरक्षा बल ही शामिल थे। बाद में दोनों देशों की सेना भी शामिल हो गयी। फिर 1 जून 1965 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री हैरोल्ड विल्सन ने दोनों पक्षों के बीच लड़ाई रुकवा कर इस विवाद को हल करने के लिए एक निष्पक्ष मध्यस्थ न्यायालय की स्थापना कर दी।
फिर शुरू हुआ ऑपरेशन जिब्राल्टर
कच्छ के रण में मिली सफलता से उत्साहित पाकिस्तान के राजनेताओं खासकर तत्कालीन विदेशमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने राष्ट्र्पति और सेनाध्यक्ष जनरल अयूब खान पर दबाव डाला कि वे कश्मीर पर ऐसा ही हमला करवाएं भारत उस समय 1962 का चीन से युद्ध हार चुका था और उनका मानना था कि भारत उस समय युद्ध करने की स्थिति में नहीं था। उनका मानना था कि पाकिस्तान के सैनिकों को घुसपैठियों के वेश में कश्मीर भेजा जाए और कश्मीर के लोगों को विद्रोह के लिए उकसाया जाए। आखिरकार जनरल अयूब खान इस दबाव में आ गये और उन्होंने गुप्त सैनिक अभियान ऑपरेशन जिब्राल्टर शुरू करने का आदेश दे दिया।
ऐसे लाहौर के पास पहुंच गई भारतीय सेना
जनरल चौधरी इस बात से सहमत नहीं थे लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उनकी बात अनसुनी कर इस हमले का आदेश दे दिया। 6 सितम्बर को लाहौर पर हमले में भारतीय सेना के प्रथम पैदल सैन्य खन्ड (इनफैंट्री डिविजन) के साथ द्वितीय बख्तरबंद उपखन्ड (ब्रिगेड) के तीन टैंक दस्ते शामिल हुए। वे तुरंत ही सीमा पार करके इच्छोगिल नहर पहुंच गये। इस तरह भारतीय सेना लाहौर की ओर काफी अंदर तक घुस चुकी थी। तब तक पाकिस्तानी सेना ने पुलियों पर रक्षा दस्ते तैनात कर दिये। जिन पुलों को बचाया नहीं जा सकता था उनको उड़ा दिया गया। फिर भी भारतीय फौज आगे बढ़ती रही।
पहली बार यु्द्ध में उतरी थी दोनों देशों की वायुसेना
इस युद्ध में आजादी के बाद पहली बार भारतीय वायु सेना (आईएएफ) और पाकिस्तानी वायु सेना (पीएएफ) के विमानों ने एक दूसरे का मुकाबला किया। इससे पहले इन दोनों वायु-सेनाओं ने 1940 के दशक में प्रथम कश्मीर युद्ध में हिस्सा लिया था। उस समय ये केवल परिवहन तक ही सीमित था। भारतीय वायु सेना के पास बड़ी संख्या में हॉकर हंटर, भारत में निर्मित फॉलैंड नैट, दे हैविलैंड वैंपायर, इ इ कैनबरा बमवर्षक और मिग-21 की एक स्क्वाड्रन थी। पाकिस्तानी वायु सेना के फाडटर प्लेन थे- 102 F-86F सैबर और 12 F-104 स्टारफाइटर, और 24 B-57 कैनबरा बमवर्षक थे।
संयुक्त राष्ट्र ने रुकवाया युद्ध
भारत ने 6 सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को पार कर पश्चिमी मोर्चे पर हमला कर युद्ध की आधिकारिक शुरुआत कर दी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने करीब 17 दिन बाद युद्ध विराम की घोषणा कर दी। फिर दोनों ही देशों को रुकना पड़ा। फिर भी भारतीय फौज पाकिस्तान के अंदर एक बड़े हिस्से तक पहुंच चुकी थी। इसके बाद ताशकंद में दोनों देशों के बीच समझौता हुआ और दोनों को एक दूसरे की जमीनें लौटानी पड़ी।