Diksha Thakur/ Pol Khol Desk
जानिए क्या है “भुण्डा” उत्सव
स्थानीय लोगों में अपनी धर्म- संस्कृति के प्रति बहुत आदर भाव
हिमाचल प्रदेश के सभी जिले में अनेक प्रकार के त्यौहार मनाये जाते है। मौसम के अनुसार यहां कई तरह के त्यौहार मनाये जाते है। हिमाचल प्रदेश में जहां देवी-देवताओं को बहुत ही श्रद्धा से पूजा जाता है तो वहीं पौराणिक रीति- रिवाजों, परंपराओं को भी अहमियत दी जाती है। प्रदेश के कोने-कोने में रहने वाले स्थानीय लोगों में अपनी परम्परा, रीति-रिवाजों के प्रति बहुत आदर भाव देखने को मिलता है। हिमाचल प्रदेश की परम्पराएं, रीति-रिवाज, मेले- त्यौहार, पूरे विश्वभर में अपने एक खास पहचान लिए है।
आज हम आपको हिमाचल प्रदेश के बहुत प्राचीन, रोचक त्यौहार भुण्डा के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी देने जा रहे हैं। हिमाचल के कुछ त्यौहार ऐसे हैं जो अन्य त्यौहारों से बिल्कुल विपरीत तो हैं ही, लेकिन रोचक भी हैं। जी हां! इन रोचक त्यौहारों में से एक त्यौहार “भुण्डा” है। लेकिन “भुण्डा” के साथ-साथ प्रदेश के रोचक त्यौहारों में “शांद” और “भोज” भी है, जिनकी अपनी विशेष महत्ता है। आज हम आपको “भुण्डा” त्यौहार से अवगत कराने जा रहे हैं। इस त्यौहार की बरसों पुरानी परम्पराएं हैं जिन्हें आज भी पुरे आदर, सम्मान और परम्पराओं से से निभाया जाता है।
“भुण्डा” उत्सव का महत्व
“भुण्डा”, “शान्द” और “भोज” भी प्रदेश के कुछ रोचक त्यौहार हैं। इन्हें पहाड़ों में हरिद्वार अथवा प्रयाग के कुम्भ जितना ही महत्व दिया जाता है। “भुण्डा” ब्राह्मणों का, “शान्द” राजपूतों का तथा ” भोज” कोलियों का त्यौहार है। अन्य जातियों के लोग भी नकदी और पदार्थों से इसमें सहायता करते हैं और इन त्यौहारों में अपनी भूमिका निभाते हैं। हिमाचल के कुल्लू के निरमंड, रामपुर बुशहर, जुब्बल में भढ़ाल आदि स्थानों पर लोग प्राचीन काल से ही यह उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाते आ रहे हैं। पहले यह त्योहार बारह वर्ष बाद मनाया जाता था। अब इसमें ज्यादा अंतराल भी आ जाता है। भुंडा उत्सव को मनाने के लिए किसी जनपद के लोग बेड़ा जाति से, जो नाग जाति का अवशेष मानी जाती है, एक परिवार को गांव के मंदिर में बुलाते हैं व उस देवता के भंडार से उसे एक साल तक पालते हैं। इस दौरान वह मुंज नामक घास का रस्सा (मोटा और लंबा) बनता रहता है, जो लगभग एक हजार मीटर लंबा होता है। त्योहार वाले दिन उस रस्से का एक छोर पहाड़ी पर किसी पेड़ के तने से बांध दिया जाता है और दूसरा छोर लगभग एक किलोमीटर नीचे किसी घाटी पर बांधा जाता है। रस्से में एक गरारी लगाई जाती है। जिसमें उक्त परिवार के किसी व्यक्ति को जिसे देवता से मांगा है, उसे खड़ा किया जाता है। उसकी टांगों को एक डंडे से बांधा जाता है जो गरारी से होकर गुजरता है। उसका संतुलन बनाने के लिए उसके पांव से होते हुए उस डंडे से दो मिट्टी की बोरियां बांधी जाती हैं। फिर धीरे-धीरे वह आगे की ओर कठपुतली की तरह पहाड़ी से नीचे सरकता है। नीचे लोग देवताओं की प्रतिमाओं के साथ उसका इंतजार करते हैं।
माना जाता है कि “भुण्डा ” यज्ञ की शुरूआत परशुराम द्वारा ही की गई। पहले उसे नरमेघ यज्ञ भी कहा जाता था। परशुराम ने निरमण्ड में अपनी कोठी में इस यज्ञ के दौरान यज्ञ में नरमुण्डों की आहुतियां दीं थी। इसी वजह से आज के निरमण्ड गांव का नाम तब नरमुण्ड पड़ा था। कहा जाता है कि हर बारह वर्ष के पश्चात हरिद्वार का कुंभ मेला समाप्त होते ही वेद पाठी ब्राह्मण सीधे निरमण्ड आ जाते थे। तभी से यह परम्परा आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है।
निरमण्ड का भुण्डा सबसे प्रसिद्ध है। इनमें सबसे प्रसिद्ध “भुण्डा ” का संबंध परशुराम की पूजा से है यद्यपि कुछ स्थानों पर काली पूजा भी होती है। पहाड़ों में परशुराम पूजा का प्रचलन पांच स्थानों पर हुआ बताया जाता है। ये स्थान हैं मण्डी में काओ और ममेल, कुल्लू में निरमण्ड और नीरथ तथा ऊपरी शिमला में दत्तनगर । यह नरमेध की तरह होता है और पूरी शास्त्रीय विधि से मनाया जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि “भुण्डा” शब्द भण्डार शब्द का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है मंदिर का खजाना परन्तु संभावना यही है कि यह उत्सव खसों के आदिवासी कबीलों विशेषकर नागों और बेड़ों पर अधिकार का सूचक है।
70 से 80 वर्ष पूर्व रस्सी पर फिसल कर नीचे आता था मनुष्य
परन्तु सरकार के प्रतिबंध लगाने के कारण अब पटरे पर बिठाया जाता है बकरा
भुण्डा में निरमण्ड का “भुण्डा” अति प्रसिद्ध है, यह नरमेघ यज्ञ की तरह नरबलि का उत्सव है। अपने में मूलरूप में इस उत्सव का स्वरूप यह था कि पर्वत की चोटी से लेकर उसके मूल तक एक रस्सा बांध दिया जाता था और उस काठी पर बैठकर एक व्यक्ति नीचे की ओर फिसलता था। 70-80 वर्ष पूर्व मनुष्य ही रस्सी पर फिसल कर नीचे आता था परन्तु प्रदेश सरकार द्वारा इस पर प्रतिबंध लगाने के कारण अब व्यक्ति के स्थान पर बकरा पटरे पर बिठाकर पहाड़ी से नीचे की ओर धकेला जाता है। उत्सव से पहले सारे स्थानीय देवी-देवताओं को गांव की ओर सेआमंत्रित किया जाता है। उत्सव के लिए इलाके के बाकी लोगों से भी अनाज एवं धन इकट्ठा किया जाता है।