
कुल्लू का दशहरा कब और क्यों हुआ शुरू, जाने कुल्लू दशहरा उत्सव के पीछे की कहानी
पोल खोल न्यूज़ डेस्क | हमीरपुर
देश के अधिकांश भागों में दशहरा विजयादशमी के दिन मनाया जाता है, जो राक्षस राजा रावण पर राम की जीत का प्रतीक है। इस मेले का मुख्य आकर्षण बुराई पर अच्छाई की जीत है। हालाँकि, कुल्लू दशहरा देश के अन्य भागों में मनाए जाने वाले दशहरा समारोहों से कुछ मायनों में अलग है। यह लोगों के सांस्कृतिक लोकाचार और उनकी गहरी धार्मिक मान्यताओं को प्रस्तुत करता है, जो इस त्योहार के दौरान पारंपरिक गीतों, नृत्यों और रंग-बिरंगे परिधानों के साथ प्रकट होते हैं। यह विजयादशमी से शुरू होता है और एक सप्ताह तक चलता है।
पूरे देश में पर्व की समाप्ति और यहां शुरूआत
पूरे देश में जब दशहरे की समाप्ति होती है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सव का उत्साह अपने चरम पर रहता है। रथयात्रा, ख़रीदारी का उत्साह और धार्मिक परंपराओं की धूम इस उत्साह को विविधता से भर देती हैं।
कैसे हुई शुरूआत
यहां इस पर्व को मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के राज में 1637 में हुई। फुहारी बाबा के नाम से जाने जाने वाले किशन दास नामक संत ने राजा जगत सिंह को सलाह दी कि कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की जाय। उनके आदेश का पालन करते हुए जुलाई 1651 में अयोध्या (उत्तर प्रदेश) से एक मूर्ति लाकर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना की गई। कहा जाता है कि राजा जगत सिंह किसी असाध्य रोग से पीड़ित थे। मूर्ति के चरणामृत सेवन से उसका रोग खत्म हो गया। स्वस्थ होने के बाद राजा ने अपना जीवन और राज्य भगवान को समर्पित कर दिया। इस तरह यहाँ दशहरे का त्यौहार धूमधाम से मनाया जाने लगा।
राजा भगवान को देते हैं न्यौता
अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा यहां के सभी 365 देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं। और पर्व के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती हैं। इन्हे राजघराने की देवी माना जाता है। कुल्लू में प्रवेशद्वार पर राजदंड से उसका स्वागत किया जाता है और उनका राजसी ठाठ-बाट से राजमहल में प्रवेश होता है। हिडिंबा के बुलावे पर राजघराने के सब सदस्य उसका आशीर्वाद लेने आते हैं। इसके उपरांत धालपुर में हिडिंबा का प्रवेश होता है।
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रथ में रघुनाथ जी की प्रतिमा
रथ में रघुनाथ जी की तीन इंच की प्रतिमा को उससे भी छोटी सीता तथा हिडिंबा को बड़ी सुंदरता से सजा कर रखा जाता है। पहाड़ी से माता भेखली का आदेश मिलते ही रथ यात्रा शुरू होती है। रस्सी की सहायता से रथ को इस जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है जहाँ यह रथ छह दिन तक ठहरता है। राज परिवार के सभी पुरुष सदस्य राजमहल से दशहरा मैदान की ओर धूम-धाम से रवाना हो जाते हैं।
देवी-देवताओं के लिए रंगबिरंगी पालकियां
इस दौरान यहां के रहवासियों की रंग-बिरंगी पौशाके देखते ही बनती हैं। या यूं कहे की उत्सव में चार चांद लगा देती हैं। इन लोगों के हाथ में दाँत की बनी गोल तुरही होती है और कुछ नगाड़ों को पीटते चलते हैं। बचे हुए लोग जब साथ में नाचते गाते हुए इस मंडली के साथ होते हैं। पहाड़ के विभिन्न रास्तों से घाटी में आते हुए देवताओं के इस अनुष्ठान को देख लगता है कि सभी देवी-देवता स्वर्ग का द्वार खोल कर धरती पर आनंदोत्सव मनाने आ रहे हैं। जैसे-जैसे नगर नजदीक आता है पर्व के शोर का रोमांच अपनी ऊंचाइयों को छूने लगता है। घाटी विस्तृत होने लगती है और भीड़ घनी होने लगती है।
कटीले पेड़ का लंकादहन
सातवे दिन रथ को बियास नदी के किनारे ले जाया जाता है जहाँ कंटीले पेड़ को लंका दहन के रूप में जलाया जाता है। कुछ जानवरों की बलि दी जाती है। इसके बाद रथ वापस अपने स्थान पर लाया जाता है और रघुनाथ जी को रघुनाथपुर के मंदिर में पुर्नस्थापित किया जाता है। इस तरह विश्व विख्यात कुल्लू का दशहरा हर्षोल्लास के साथ संपूर्ण होता है।
अंतर्राष्ट्रीय कला महोत्सव
धालपुर की धरती इस समय देश के कोने-कोने से आए व्यापारियों से भी भरी रहती है। प्रचार के तहत खाज़गी और राजकीय स्तर पर कई प्रदर्शनियां लगती हैं। रात में कला केंद्र में अंतर्राष्ट्रीय कला महोत्सव का भी आनंद लिया जाता है। कुल्लू दशहरा घाटी में मनाए जाने वाले सभी त्यौहार और महोत्सवों का अंतिम त्यौहार है। त्योहारों की अगली शुरुआत मार्च के महीने से होती है।