
जय हिंद.. 1971 का वह युद्ध जब इंडियन आर्मी ने पाकिस्तान को घुटने टेकने को किया मजबूर , पूर्वी पाक जीत बनाया बांग्लादेश
विशेष रिपोर्ट :- रजनीश शर्मा
पोल खोल न्यूज़ डेस्क
1971 के बांग्लादेश अभियान की सबसे निराली बात थी कि भारतीय सेना के सामने पूर्वी पाकिस्तान की राजधानी ढाका पर क़ब्ज़ा करने का लक्ष्य रखा ही नहीं गया था। भारत की रणनीति थी कि पूर्वी पाकिस्तान की अधिक से अधिक ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके वहाँ पर बांग्लादेश की सरकार स्थापित की जाए ताकि भारत आए एक करोड़ शरणार्थियों को वहाँ वापस भेजा जा सके।
मिलिट्री ऑपरेशन के महानिदेशक मेजर जनरल केके सिंह ने युद्ध की जो योजना बनाई थी, उसके तीन बिंदु थे।
श्रीनाथ राघवन अपनी किताब ‘1971 अ ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ़ द क्रिएशन ऑफ़ बांग्लादेश’ में लिखते हैं, “योजना का पहला उद्देश्य था पूर्वी पाकिस्तान के दो बड़े बंदरगाहों चटगाँव और खुलना पर क़ब्ज़ा करना ताकि और पाकिस्तानी सैनिक वहाँ न उतर सकें, दूसरा लक्ष्य था उन जगहों पर क़ब्ज़ा करना जहाँ से पाकिस्तानी बल एक जगह से दूसरी जगह पर न जा सकें.”
वो आगे लिखते हैं, “तीसरा उद्देश्य था पूर्वी पाकिस्तान को छोटे-छोटे हिस्सों में बाँट देना ताकि भारतीय सैनिक एक-एक कर उन्हें अपने नियंत्रण में ले सकें। ढाका पर क़ब्ज़ा करने की बात सोची ज़रूर गई थी, लेकिन उसे ज़रूरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी मानकर छोड़ दिया गया था।”
यह मानकर चला जा रहा था कि इस पूरे अभियान में भारतीय सेना को तीन सप्ताह लगेंगे।
सन् 1965 के युद्ध में भारत का अनुभव था कि युद्धविराम के अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण इस अभियान को और लंबा नहीं किया जा सकता था।
सैम मानेक शॉ ने जुलाई, 1971 में अपनी योजना पूर्वी कमान के कमांडर लेफ़्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को बता दी थी।
अरोड़ा इस योजना से सहमत थे, लेकिन उनके चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ जनरल जैकब ने इस पर अपना विरोध जताया था।
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जैकब और मानेक शॉ में मतभेद
जैकब का मानना था कि ढाका पर क़ब्ज़ा करना भारतीय सेना का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए था।
जैकब अपनी किताब ‘सरेंडर एट ढाका’ में लिखते हैं, “लड़ाई से कुछ महीनों पहले मैंने पाकिस्तानी ठिकानों को बाईपास कर सीधे ढाका कूच करने की योजना को अंतिम रूप दिया था, लेकिन जब मानेक शॉ और केके सिंह पूर्वी कमान के मुख्यालय पर आए थे तो हमारे मतभेद खुलकर सामने आ गए थे।”
वो आगे लिखते हैं, “जब केके सिंह ने अपना प्लान सामने रखा तो मैंने कहा कि ढाका पूर्वी पाकिस्तान का ‘जियो-पोलिटिकल हार्ट’ है। हम पूर्वी पाकिस्तान पर क़ब्ज़े की बात ढाका पर क़ब्ज़ा किए बिना नहीं सोच सकते।”
जैकब के मुताबिक़, तब मानेक शॉ ने हस्तक्षेप करते हुए कहा था, “आपको नहीं लगता कि अगर हम चटगाँव और खुलना ले लेते हैं तो ढाका अपने-आप गिर जाएगा? मैंने कहा मैं इससे सहमत नहीं हूँ। मैंने फिर दोहराया कि हमारा मुख्य उद्देश्य ढाका पर क़ब्ज़ा होना चाहिए।”
“इस पर मानेक शॉ ने कहा कि ढाका हमारी प्राथमिकता नहीं है। मैं इस पर क़ब्ज़ा करने के लिए अतिरिक्त सैनिक नहीं दूँगा। इस पर जनरल अरोड़ा ने अपनी रज़ामंदी दिखाई थी।”
बाद में एयर चीफ़ मार्शल पीसी लाल ने अपनी आत्मकथा ‘माई इयर्स विद आईएएफ़’ में लिखा था-
“हम ये मानकर नहीं चल रहे थे कि हम पाकिस्तानी सेना को पूरी तरह हराकर ढाका पर क़ब्ज़ा कर पाएँगे। शुरू में लगा भी कि कुछ ऐसा ही होने जा रहा है।”
“भारतीय सेना ने जैसोर पर तो 7 दिसंबर को क़ब्ज़ा कर लिया था लेकिन खुलना पर उसका क़ब्ज़ा ढाका में पाकिस्तानी सेना के हथियार डालने के बाद ही हो सका।”
1971 की लड़ाई के 50 वर्ष पूरे होने के बाद भी बहुत से पश्चिमी लेखक भारत की निर्णायक कूटनीति और मुक्ति बाहिनी को प्रशिक्षित करने का श्रेय भारत को नहीं देते, लेकिन उनमें इस बारे में एक राय है कि इस मौके पर भारत के राजनीतिक दलों के आपसी मतभेद होने के बावजूद पूरा देश एकजुट था।
अर्जुन सुब्रमण्यम अपनी किताब ‘इंडियाज़ वॉर्स 1947-1971’ में लिखते हैं, “शुरू में इंदिरा गाँधी ने सोचा था कि मुक्ति बाहिनी को जिस तरह की मदद और प्रशिक्षण भारत दे रहा था, वो अकेले ही अपने बूते पर पाकिस्तान की सेना को हरा पाने में सक्षम होगी।”
वो आगे लिखते हैं, “लेकिन उन्होंने इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाया था कि पाकिस्तान की सेना की निर्दयता बढ़ती चली जाएगी और भारत में आने वाले शरणार्थियों की संख्या बढ़ती चली जाएगी।”
“जब नवंबर आते-आते भारत में पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की संख्या एक करोड़ पार कर गई और पूरी दुनिया ने इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की तो भारत के पास पाकिस्तान से पूर्वी सीमा पर युद्ध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।”
इस लड़ाई में पाकिस्तान के सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया और बांग्लादेश के रूप में नए राष्ट्र का जन्म हुआ।
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कई पाकिस्तानी युद्धबंदियों ने भी स्वीकार किया कि उनके साथ भारत में अच्छा व्यवहार किया गया था। सेना मुख्यालय का आदेश था कि पाकिस्तानी सैनिकों के साथ जेनेवा समझौते के अनुसार व्यवहार किया जाए।
लेफ़्टिनेंट जनरल टॉमस मैथ्यू याद करते हैं, “आगरा में उनकी पैरा यूनिट को अपने बैरक ख़ाली कर देने के बाद टेंट में रहना पड़ा ताकि पाकिस्तानी युद्धबंदियों को वहाँ रखा जा सके। इस आदेश के बावजूद कि पाकिस्तानी युद्धबंदियों से कम-से-कम घुला-मिला जाए, मैंने युद्धबंदी कैंप का निरीक्षण करने का फ़ैसला किया।”
वो बताते हैं, “मैं हाथ में एक बेंत लेकर अपने दो सैनिकों के साथ कैंप में घुसा। मुझे देख कर अधिकतर पाकिस्तानी सैनिक अपनी पलंग के बग़ल में सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए, लेकिन पाकिस्तानी स्पेशल फ़ोर्स के कुछ सैनिक मुझे देखकर बैठे रहे।”
जब जनरल मैथ्यू ने इसकी वजह पूछी तो वे चुप रहे, लेकिन एक सैनिक ने हिम्मत जुटाकर कहा, “मैं क्यों सावधान की मुद्रा में खड़ा होऊँ जब मुझे पता नहीं है कि मेरी पत्नी और बच्चे पाकिस्तान में किस हाल में रह रहे हैं?”
जनरल मैथ्यू कहते हैं, “मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि मैं पता लगाकर उनकी जानकारी आपको दूँगा. मैंने उस सैनिक का विवरण लेकर दिल्ली में मिलिट्री ऑपरेशन के महानिदेशक को भेजा. कुछ दिनों बाद जब मैंने उस पाकिस्तानी सैनिक को बताया कि उसका परिवार सकुशल है तो उसके चेहरे पर मुस्कान वापस आ गई।”
जैसे-जैसे संकट बढ़ा राष्ट्रपति निक्सन और उनके सलाहकार किसिंजर दोनों इंदिरा गांधी की अमेरिका की बात न मानने की नीति से काफ़ी परेशान हुए।
सातवें बेड़े के भेजे जाने का उन पर कोई असर न होना भी अमेरिकी नेतृत्व को बहुत खला।
इंदिरा गांधी की व्यावहारिक राजनीति पर पकड़ के साथ-साथ उनकी पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की पीड़ा से पूरी सहानुभूति ने उन्हें सही फ़ैसले लेने के लिए प्रेरित किया जिसकी वजह से ये लड़ाई एक न्यायसंगत लड़ाई में बदल गई।
1971 की सफलता का सबसे बड़ा श्रेय युद्ध-योजना को दिया जाता है, लेकिन इस योजना पर अमल लेफ़्टिनेंट जनरल सगत सिंह, कैप्टन स्वराज प्रकाश, ग्रुप कैप्टन वोलेन और ग्रुप कैप्टन चंदन सिंह के योगदान के बिना नहीं हो सकता था।
अर्जुन सुब्रमण्यम लिखते हैं, “अगर सगत सिंह ने अखौरा, भैरब बाज़ार और सिल्हट को बाईपास नहीं किया होता या चंदन सिंह ने एमआई हेलिकॉप्टरों के ज़रिए सैनिकों, हथियारों और तोपों को मेघना नदी के पार नहीं पहुँचाया होता या ग्रुप कैप्टेन वोलेन ने अपने पायलटों को तेजगाँव हवाई ठिकाने पर डाइव लगा कर हमला करने के लिए नहीं कहा होता या स्वराज प्रकाश और मेजर जनरल ऊबान ने करीब-करीब आधी डिवीजन भारतीय सेना को चटगाँव सेक्टर में नहीं लगाया होता तो ढाका 16 दिसंबर तक तो नहीं गिर पाता।”