
Diksha Thakur | Pol Khol News Desk
माता शूलिनी मंदिर/ सोलन
माता शूलिनी बघाट रियासत के शासकों की कुलदेवी देवी मानी जाती है। माता शूलिनी का मंदिर सोलन शहर के शीली मार्ग पर स्थित है। शहर की अधिष्ठात्री देवी शूलिनी माता के नाम से ही शहर का नाम सोलन पड़ा, जो देश की स्वतंत्रता से पूर्व बघाट रियासत की राजधानी के रूप में जाना जाता था। यहां का नाम बघाट भी इसलिए पड़ा क्योंकि रियासत में 12 स्थानों का नामकरण घाट के साथ था। माना जाता है कि बघाट रियासत के शासकों ने यहां आने के साथ ही अपनी कुलदेवी शूलिनी माता की स्थापना सोलन गांव में की और इसे रियासत की राजधानी बनाया।
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इतिहास
माता शूलिनी साक्षात देवी मां दुर्गा का स्वरूप है। शूलिनी देवी को भगवान शिव की शक्ति माना जाता है। कहते हैं जब दैत्य महिषासुर के अत्याचारों से सभी देवता और ऋषि- मुनि तंग हो गए थे, तो वे भगवान शिव और विष्णु जी के पास गए और उनसे सहायता मांगी थी। तो भगवान शिव और विष्णु के तेज से भगवती दुर्गा प्रकट हुई थी। जिससे सभी देवता खुश हो गए थे और अपने अस्त्र-शस्त्र भेंट करके दुर्गा मां का सम्मान किया था। इसके बाद भगवान शिव ने त्रिशूल से एक शूल देवी मां को भेंट किया था, जिसकी वजह से देवी दुर्गा मां का नाम शूलिनी पड़ा था। ये वही त्रिशूल है, जिससे मां दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था।
माता शूलिनी देवी के नाम से सोलन शहर का नामकरण हुआ था जोकि मां शूलिनी की अपार कृपा से दिन-प्रतिदिन समृद्धि की ओर अग्रसर हो रहा है। सोलन नगर बघाट रियासत की राजधानी हुआ करता था। इस रियासत की नींव राजा बिजली देव ने रखी थी। बारह घाटों से मिलकर बनने वाली बघाट रियासत का क्षेत्रफल 36 वर्ग मील में फैला हुआ था। इस रियासत की प्रारंभ में राजधानी जौणाजी तदोपरांत कोटी और बाद में सोलन बनी। राजा दुर्गा सिंह इस रियासत के अंतिम शासक थे। रियासत के विभिन्न शासकों के काल से ही माता शूलिनी देवी का मेला लगता आ रहा है। जनश्रुति के अनुसार बघाट रियासत के शासक अपनी कुलश्रेष्ठा की प्रसन्नता के लिए मेले का आयोजन करते थे।
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बदलते समय के दौरान यह मेला आज भी अपनी पुरानी परंपरा के अनुसार चल रहा है। माता शूलिनी के इस मंदिर का पुराना इतिहास बघाट रियासत से जुड़ा हुआ है। बघाट रियासत के लोग माता शूलिनी को अपनी कुलदेवी के रूप में मानते थे, तभी से माता शूलिनी बघाट रियासत के शासकों के लिए उनकी कुलदेवी के रूप में पूजी जाती है। वर्तमान समय में माता शूलिनी का भव्य मंदिर सोलन शहर के दक्षिण दिशा में बना हुआ है।
प्रतिवर्ष मेले का आयोजन
मान्यता के अनुसार बघाट के शासक अपनी कुल देवी की प्रसन्नता के लिए प्रतिवर्ष मेले का आयोजन करते थे। लोगों का मानना है कि मां शूलिनी के प्रसन्न होने पर क्षेत्र में किसी भी प्रकार की प्राकृतिक आपदा व महामारी का प्रकोप नहीं होता, बल्कि खुशहाली आती है और मेले की यह परंपरा आज भी कायम है।
पहले यह मेला केवल एक दिन ही मनाया जाता था, लेकिन सोलन जिला के अस्तित्व में आने के पश्चात इसका सांस्कृतिक महत्व बनाए रखने, आकर्षक बनाने व पर्यटन दृष्टि से बढ़ावा देने के लिए इसे राज्यस्तरीय मेले का दर्जा दिया गया। अब यह मेला जून माह के तीसरे सप्ताह में तीन दिनों तक मनाया जाता है। पहले छोटे स्तर पर आयोजित होने वाले शूलिनी मेले का आज स्वरूप विशाल हो गया है, आज यह राज्यस्तरीय तीन दिवसीय मेले के रूप में मनाया जाता है।
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इस मंदिर के अंदर माता शूलिनी के अलावा अन्य देवी-देवताओं की भी पूजा होती है जैसे कि शिरगुल देवता, माली देवता इत्यादि तथा मंदिर के अंदर इनकी बड़ी प्रतिमाएं भी विद्यमान हैं। कहते हैं कि इस मेले के जरिये मां शूलिनी शहर के भ्रमण पर निकलती हैं और जब वापस आती हैं, तो अपनी बहन के पास दो दिन के लिए रुकती हैं। इसके बाद मां शूलिनी मंदिर वापस आती है, यही वजह है कि मेले का आयोजन किया जाता है। साथ ही पूरे शहर में भंडारों का आयोजन भी किया जाता है।
बड़ी बहन के घर पर दो दिनों तक रुकती हैं माता
सोलन की अधिष्ठात्री देवी मां शूलिनी मेले के पहले दिन पालकी में बैठकर अपनी बड़ी बहन मां दुर्गा से मिलने पहुंचती है। दो बहनों के इस मिलन के साथ ही राज्य स्तरीय मां शूलिनी मेले का आगाज हो जाता है। मां शूलिनी अपने मंदिर से पालकी में बैठकर शहर की परिक्रमा करने के बाद गंज बाजार स्थित अपनी बड़ी बहन मां दुर्गा से मिलने पहुंचती है। मां शूलिनी तीन दिनों तक लोगों के दर्शानार्थ वहीं विराजमान रहती है।